यह बात है 8 मई 1968 की है। लोकसभा में गोहत्या पर पाबंदी को लेकर बहस हो रही थी। इंदिरा गांधी की सरकार में श्रम मंत्री बाबू जगजीवन राम की इस घोषणा से संसद में हंगामा खड़ा हो गया कि वैदिक काल में ब्राह्मण भी गोमांस खाते थे। विपक्ष ने हंगामा शुरू किया। शंकराचार्य भी आग बबूला हो उठे, सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये। सुप्रीम कोर्ट ने लोकसभा अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी को तलब कर दिया। मगर यह लोकसभा का अपमान था इसलिए सारा पक्ष विपक्ष एक साथ खड़ा हो गया और नीलम संजीव रेड्डी से कहा कि आप सुप्रीम कोर्ट से जाकर कह दें कि लोकसभा में दखल करना आपके अधिकार क्षेत्र में नही है।
विवाद बढ़ते देख बाबू जगजीवन राम जी लोकसभा में अपनी बात रखने के लिए दोबारा आये। इसबार वे अपने साथ ऋग्वेद की किताब भी लेकर आये। लोकसभा में खड़े होकर उन्होंने ऋग्वेद के उस एक एक श्लोक को पढ़कर सुनाया जिसके आधार पर उन्होंने इतनी बड़ी बात कही। जिसका कोई भी व्यक्ति जवाब ही नही दे पाया और विपक्ष के साथ शंकराचार्य ने भी ख़ामोशी ओढ़ दी। उसके बाद से देश के अंदर शास्त्रों के छेड़छाड़ और मुस्लिम, कम्युनिष्टों इत्यादि द्वारा गलत इतिहास लिखने के आरोप का प्रचार बढ़ा है। क्योंकि कुरीति को कुतर्क ही ढक सकते हैं।
आपको बता दूं कि बाबू जगजीवन राम संस्कृत के विद्वान भी थे, 1925 में आरा बिहार में जब बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय एक सभा को संबोधित करने आये थे तब बाबु जगजीवन राम ने अपना भाषण संस्कृत में ही दिया था जिससे प्रभावित होकर मालवीय जी ने बाबू जी को बीएचयू में पढ़ने के लिए आमंत्रित किया था। बाबू जगजीवन राम के पिता ब्रिटिश आर्मी रिटायर थे और शैव सम्प्रदाय के पुरोहित रहे हैं इसलिए बाबू जी को धर्म कर्म का अच्छा ज्ञान था। संस्कृत ज्ञानी होने के चलते लोकसभा का वह गोमांस का मुददा तो स्वतः ही समाप्त हो गया लेकिन उनकी जाति कभी समाप्त नहीं हुई।
शुद्र वर्गों में यदि कोई धर्म,कर्म का ज्ञानी हो जाता है तो वह उसे आत्मसात करने लगता है जबकि उसे बदले में मुहँ की खानी पड़ती है। उन्होंने यह तो पढा की गोमांस खाते थे लेकिन यह नहीं समझा कि शूद्रों को मन्दिर जाने पर पाबंदी क्यों है। फिर समय आया 1978 का। भारत देश के रक्षा मंत्री श्री बाबु जगजीवन राम जी अपने परिवार के साथ जगन्नाथ पुरी मंदिर दर्शन के लिए चले गए लेकिन दलित होने के कारण उनके परिवार को मंदिर प्रवेश की अनुमति नही मिली और उन्हें शुद्र वर्ण होने के चलते बिना दर्शन किये ही वापस लौटना पड़ा।
इतना ही नहीं एकबार वे रक्षामंत्री रहते हुए वाराणसी (बनारस अथवा काशी) में ठाकुर पूर्ण सिंह की मूर्ति की स्थापना करने गए। मूर्ति का अनावरण करने के बाद जब वे वहां से वापस आये तो काशी के पंडितों में ग़जब का रोष था कि एक शुद्र ने कैसे ठाकुर जी की मूर्ति का अनावरण कर दिया है। पंडा पुरोहितों ने तुरन्त तीन ट्रकों में गंगाजल भरकर मूर्ति का शुद्धिकरण कर डाला। वे रक्षा मंत्री बाद में थे। इतना बड़ा अपमान होने के बावजूद वे किसी कुछ न बिगाड़ सके वह भी तब सरदार पूर्ण सिंह खुद नास्तिक थे।
याद होगा आपको 1971 में पाकिस्तान को भारत ने धूल चटाई थी और रक्षा मंत्री के रूप में जो कार्य जगजीवन राम जी ने किये थे उसके सब कायल थे भले ही आज भी इस युद्ध की जीत का श्रेय श्रीमती इंदिरा गांधीजी को दिया जाता है लेकिन जातिवादी खेल ही श्रेय और वर्चस्व का है। इमरजेंसी लगने के बाद जब जगजीवन बाबू ने जेपी नारायण का साथ दिया तब इंडिया गांधी जी व कांग्रेस पूरी तरह ध्वस्त हो गयी। मौका आया प्रधानमंत्री बनाने का तो जगजीवन राम जी के पक्ष में माहौल भी था व मौका भी लेकिन जेपी ने उन्हें दरकिनार कर दिया था।
मजेदार बात यह है चौधरी चरणसिंह व मोरारजी देसाई की आपस में रत्ती भर भी नहीं बनती थी लेकिन सत्ता क्या कुछ न करवा दे इसके लिए इतिहास असंख्य उदाहरणों से भरा पड़ा है। जाति का संघर्ष व तमगा सदियों पुराना है जहां देश के मुख्यमंत्री, रक्षामंत्री, उप प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति तक अछूते नहीं रह सके। आज हालात नहीं तरीके बदल गए हैं बस। पुरानी व्यवस्था में नया प्रयोग कार्यरत है। आज बाबू जगजीवन राम जी की जयंती है, उनके कार्यों का अवलोकन तथा समीक्षा अपनी जगह है लेकिन उनके साथ जो आजीवन एक अतिरिक्त दृष्टिकोण बना रहा मैंने उसे ही केवल आपके समक्ष रखा। इसे जरूर जाने, समझें और सीखें।