इस बार के उत्तराखंड चुनाव में राजनैतिक दलों में जोश बढ़ता नजर आ रहा है। सभी के अपने अपने दावे और तथ्य है। दावों के अनुसार अबतक की सरकारों ने विकास की लकीर तो खींची है। लेकिन राज्य में पलायन की तकदीर को बदल नही सकी। आज भी पलायन की समस्या एक ऐसी समस्या है जो राज्य में मूल आवश्यकताओं में कमी का सुचांक है। उत्तराखंड में एक कहावत कही जाती है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती। राज्य में पलायन इस कहावत को फलहित करता दिखाई देता है। उत्तराखंड में अधिकांश पढ़ा-लिखा वर्ग गाँव से बाहर रोजगार के अवसर पाते ही पलायन कर जाता है।
कभी साल-छह महीने में गाँव पहुच पाते हैं। ऐसे करके अगर देखा जाए तो उत्तराखंड के गावों से लगभग आधी आबादी राज्य सरकारों के दावों की पोल खोलकर बेहतर भविष्य की तलाश में पलायन कर चुकी है। गत वर्ष कोरोनाकाल में तमाम प्रवासी लौटकर अपने गांव पहुंचे। कहा जा रहा था कि अब इनमें से अधिकतर लोग वापस नहीं जाएंगे, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ।पलायन की मुख्य वजहों में रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, कृषि की समस्या, जंगली जानवरों से खेती का नुकसान, सड़क, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव या एक-दूसरे की देखा-देखी पलायन देखा गया है। देखा जाए तो यह रातों रात नही हो रहा। आज की यह स्थिति पैदा होने में कई वर्षो का समय लगा है। सवाल यह है, कि आखिर कितनी सरकारें सत्ता में आई, समितियां बनी, रिपोर्ट्स बनी, चर्चाएं हुई, चर्चाओं पर कार्य भी हुआ, बस नही रोका जा सका तो सिर्फ पलायन।
अगर सुरक्षा की दृष्टि से भी देखा जाए, तो विदेश सीमाओं से सटे उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों से भारी पलायन ठीक नही। पर्वतीय लोगों की पहचान को संरक्षित करना, राज्य बनाने का मूल मकसद था। अब खतरा यह है, कि पहाड़ों में पलायन के कारण, वहां आबादी घटने का क्रम इसी तरह जारी रहा तो कुछ दशक बाद उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में मूल लोगों के अल्पमत में आने से इस हिमालयी राज्य के गठन की पूरी अवधारणा ही ध्वस्त हो जाएगी। वही सालों में इस राज्य की सरकारों ने पलायन रोक पाने के लिए कैसे काम किया, पिछली पलायन आयोग की रिपोर्ट उसी नाकामी का दस्तावेज है। ऐसे में चुनावी दावों के क्या मायने रह जाते है।